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मुद्रा (Currency): प्रसार, मुद्रा की तरलता (Liquidity) और मुद्रा की मापन विधि

मुद्रा (Currency): प्रसार, मुद्रा की तरलता (Liquidity) और मुद्रा की मापन विधि

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मुद्रा (Currency): प्रसार, मुद्रा की तरलता (Liquidity) और मुद्रा की मापन विधि

मुद्रा क्या है?

समाज में मुद्रा की उत्पत्ति विनिमय (लेन-देन) के माध्यम के रूप में हुई है। अतः वह वस्तु जो विनिमय के माध्यम का कार्य करती है, मुद्रा कहलाती है अर्थात् मुद्रा (Currency) वह वस्तु है, जो सभी प्रकार के लेन-देन में भुगतान के माध्यम के रूप में प्रयुक्त होती है।

  • मुद्रा का निर्गमन केन्द्रीय बैंक व सरकार द्वारा किया जाता है।
  • मुद्रा का अभिप्राय मात्र नोटों व सिक्कों से न होकर उन सभी वस्तुओं से हैं, जो भुगतान के रूप में सामान्यतः स्वीकार की जाती हैं।

मुद्रा के दो प्रकार की होती है:-

  1. वैधानिक मुद्रा (Legal Currency): वह मुद्रा जिसका निर्गमन सरकार या रिजर्व बैंक द्वारा एक विधान के अन्तर्गत किया जाता है और जिसमें रिजर्व बैंक; धारक को उतनी रकम अदा करने का वचन देता है।
  2. साख मुद्रा (Credit Currency): वह मुद्रा है, जिसका भुगतान चेकों के माध्यम से होता है।

मुद्रा का प्रसार एवं मापन:-

किसी भी अर्थव्यवस्था में कुल मुद्रा को मापने के लिए केन्द्रीय बैंक कुछ मापकों का प्रयोग करते हैं। इस संदर्भ में भारत के रिजर्व बैंक द्वारा सन् 1977 में एक टास्क-फोर्स का गठन किया गया, जिसके द्वारा बाजार में किसी समय पर कितनी मुद्रा उपलब्ध है, मापने के लिए 4 स्तर के मापक निर्धारित किये गए, जिन्हें M1, M2, M3 एवं M4 के नाम से जाना जाता है।

यहाँ हमें, मुद्रा के मापन विधि को समझने से पहले अर्थव्यवस्था में तरलता (Liquidity) शब्द को समझना आवश्यक है:-

अर्थव्यवस्था में तरलता (Liquidity) – अर्थव्यवस्था में तरलता दो प्रकार से हो सकती है–

  1. बाजार की तरलता:– किसी भी समय अर्थव्यवस्था में उपलब्ध मुद्रा की कुल मात्रा को तरलता कहा जाता है।
    • यदि बाजार में तरलता अधिक है तो ऐसे में, मुद्रास्फीति की स्थित उत्पन्न हो सकती है।
    • दूसरा, बाजार में तरलता कम होने पर, बाजार में अपस्फीति या मंदी की स्थिति आ सकती है।
  2. मुद्रा की तरलता:– मुद्रा की तरलता का सीधा संबध; मुद्रा के व्यय होने में लगने वाले समय से है। यदि किस मुद्रा को प्रयोग करने में समय कम लग रहा है तो वह मुद्रा अधिक तरल है। उदाहरण के लिए यदि एक व्यक्ति के पास नगदी, क्रेडिट कार्ड और सोने के रूप में परिसंपत्तियां (मुद्रा) उपलब्ध हैं तो ऐसे में नगदी सबसे अधिक तरल (क्योंकि नगद सबसे जल्दी और आसानी से खर्ची जा सकती है), क्रेडिट कार्ड कुछ कम तरल और सोने की तरलता सबसे कम मानी जाएगी।

मुद्रा की मापन विधि /स्तर:

M1 =  CU (Coins and Currency) + DD (Demand and Deposit)

यहाँ CU का आशय लोगों के पास उपलब्ध नगदी (नोट एवं सिक्के) से है, जबकि  DD – व्यावसायिक बैंकों के पास कुल निवल जमा और रिजर्व बैंक के पास अन्य जमा पूँजी को दर्शाता है।

    • ‘निवल’ शब्द से, बैंक के द्वारा रखी गयी ‘लोगों की जमा पूँजी’ का ही बोध होता है; इसलिए इसे मुद्रा की पूर्ति के तौर पर शामिल किया जाता है।
    • अंतर-बैंक जमा, जो एक व्यावसायिक बैंक दूसरे व्यावसायिक बैंक में रखते हैं, को मुद्रा की पूर्ति के भाग के रूप में नहीं लिया जाता है।

M2 = M1 + डाकघर बचत बैंकों की जमा पूँजियाँ (बचत)

M3 = M1 + बैंकों ने जमा Fixed Deposits (सावधि जमाये)

M4 = M3 + डाकघर बचत संस्थाओं में कुल जमा राशि (राष्ट्रीय बचत प्रमाण पत्रों को छोड़कर)

M1 से M4 की तरफ जाने पर मुद्रा की तरलता घटती जाती है, जबकि बाजार की तरलता बढ़ती जाती है।

अत:  M1 > M2 > M3 > M4

  • संकुचित मुद्रा (Narrow Money) = M1 को संकुचित मुद्रा भी कहते है क्योंकि मात्रा में ये अन्य सभी से सबसे कम होती है अर्थात् इसमें पैसा सबसे कम होता है।
  • वृहद/बड़ी मुद्रा (Broad Money) = M3 को वृहद मुद्रा कहते हैं।
    • नियमानुसार तो वृहद मुद्रा ‘M4’ को होना चाहिए परन्तु M1 से M4 तक जाते-जाते उसे प्रयोग करना कठिन होता जाता है।
    • इसे ऐसे भी समझा जा सकता है कि M4 की तरलता इतनी कम होती है कि उसे प्राय: प्रयोग में नहीं लाया जा सकता, इसलिए M3 को ही वृहद मुद्रा कहा जाता है।

मुद्रा के कुछ प्रमुख प्रकार:

यहां हम ‘भौतिक स्थिति और मांग के आधार’ पर मुद्रा का वर्गीकरण बता रहें हैं:-

  • धात्विक मुद्रा – इसमें सभी सिक्के आते हैं।
  • कागजी मुद्रा – सभी नोट आते हैं।
  • प्लास्टिक मुद्रा – क्रेडिट एवं डेबिट कार्ड आते हैं।
  • बुरी मुद्रा – इसमें सभी कटे फटे नोट आते हैं।
  • अच्छी मुद्रा – इसके अंतर्गत नये नोट आते हैं।
नोट: अच्छी और बुरी मुद्रा के सम्बन्ध में अर्थशास्त्री ग्रेसम्स ने एक नियम बताया था, जिसे ग्रेसम्स के नियम के नाम से जाना जाता है।
  • ग्रेसम्स का नियम किसी भी अर्थव्यवस्था में बुरी मुद्रा; अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर करके उसका स्थान ले लेती है। उदाहरण के लिए यदि किसी व्यक्ति के पास पुरानी कटी-फटी मुद्रा (बुरी मुद्रा) है तो वह उसे ही पहले प्रयोग में लाने का प्रयास करेगा न की नई मुद्रा (अच्छी मुद्रा) को, इस प्रकार बुरी मुद्रा, अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है।
  • गरम मुद्रा – जिस मुद्रा की अंतर्राष्ट्रीय बाजार में मांग अधिक हो, उसे गरम-मुद्रा कहा जाता है। उदाहरण: डॉलर।
  • ठण्डी मुद्रा – जिस मुद्रा की अंतर्राष्ट्रीय बाजार में मांग कम हो, उसे ठण्डी-मुद्रा कहा जाता है।
  • विदेशी मुद्रा – हर देश की मुद्रा का अलग मूल्य होता है जोकि उस देश के अंतर्राष्ट्रीय बाजार में उसके उत्पादन की हिस्सेदारी के आधार पर तय होता है।
    • इसे ऐसे समझें:- जब किसी देश की मुद्रा की हिस्सेदारी; अंतर्राष्ट्रीय बाजार में अधिक होगी तो उसका मूल्य भी अधिक होगा। उदहारण के लिए: अमेरिका जिसकी अंतर्राष्ट्रीय बाजार में 20% हिस्सेदारी है, जबकि भारत की कुल 2% है।

 

अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा का मूल्य निर्धारण:

  1. बाजार द्वारा मुद्रा का मूल्य निर्धारण – अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में किसी देश की मुद्रा की मांग के आधार पर उसके मूल्य का निर्धारण किया जाता है। इसे प्रवाही विनिमय दर (Floating exchange rate) कहते हैं।

नोट: इसे ‘प्रवाही’ इसलिए कहा जाता है क्योंकि यह दर कम ज्यादा होती रहती है।

    • किसी भी देश की मुद्रा का मूल्य निरपेक्ष (अकेले) नहीं होता बल्कि वो हमेशा दूसरी मुद्रा के सापेक्ष होता है अर्थात् एक देश की मुद्रा की दूसरे देश के मुद्रा के साथ तुलना की जाती है, जिसे विनिमय दर (Exchange rate) कहा जाता है। जैसे कि: 1$ = 74 रूपये।
  1. सरकार द्वारा मुद्रा का मूल्य निर्धारण – कभी-कभी सरकारें भी जानबूझकर अपने देश की मुद्रा का मूल्य कम या ज्यादा कर देती हैं। ऐसा उस देश की आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखकर किया जाता है। यहाँ हम कुछ termology समझतें हैं:–
    • अधिमूल्यन (Overvaluation) –  मुद्रा का मूल्य बढ़ाना
    • अवमूल्यन (Devaluation) –  मुद्रा का मूल्य घटाना

अवमूल्यन (Devaluation) करने की भी कुछ स्थितियां होती हैं जैसे कि–

  • जब किसी देश की सरकार के पास विदेशी मुद्रा की कमी हो जाती है तो वो जानबूझकर अपनी मुद्रा का मूल्य घटाकर (अवमूल्यन) करके, विदेशी मुद्रा को संग्रहित करती है।
  • जब किसी देश को निर्यात बढ़ाना हो और आयात घटाना हो, तब भी मुद्रा का अवमूल्यन किया जाता है। इस अवधारणा को अर्थशशास्त्रियों ने ‘J-वक्र’ कहा है।
नोट: भारत में अब तक 3-बार (1948 में, 1966 में, 1991 में) मुद्रा का अवमूल्यन हुआ है।

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